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पितामह भीष्म के अंतिम समय में युधिष्ठिर को दिए गए उपदेश

द्वापर के सबसे महान योद्धा पितामह भीष्म, बाणों की शैया पर लेटे सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। तभी उनकी कानों में एक परिचित ध्वनि शहद बोलते हुए आई “प्रणाम गंगा पुत्र” पितामह भीष्म उस घोर पीड़ा में भी मुस्कुरा कर बोले, मैं जानता था तुम अवश्य आओगे। तुम्हारे दर्शन में मेरी सारी पीड़ा दूर कर दी‌। हे गिरिधर, हे गोपाल, हे देवकीनंदन मुझे तो जीते जी मोक्ष मिल गया। भगवान कृष्ण बोले यही तो मैं चाहता था कि आप जाते-जाते अपने पुत्र युधिष्ठिर को कुछ शिक्षा दें। भीष्म पितामह करुणा भरे स्वर से बोले हे गिरिधर तुम्हारे होते हुए शिक्षा देने वाला, मैं कौन होता हूं? भगवान कृष्ण मना करते हुए बोले, नहीं पितामह मेरे पास ज्ञान है किंतु अनुभव नहीं। आप अपना अनुभव देकर इन्हें कृतार्थ करें। भीष्म पितामह बोले तनिक मेरे आंसू पहुंची वासुदेव ताकि में हस्तिनापुर के भावी नरेश पांडूपुत्र, चक्रवर्ती महाराज युधिष्ठिर को देख सकूं।

भीष्म पितामह थोड़ी देर बाद बोले “हस्तिनापुर नरेश की जय हो” और मुझे स्वर्ग लोक जाने की आज्ञा दे महाराज। महाराज मैं जो नहीं देखना चाहता था वह भी देख लिया और जो देखने के लिए जी रहा था वह भी देख लिया। पितामह की यह बात सुनकर कुंती पुत्र अर्जुन रोते हुए बोले, नहीं पितामह मैं आपको जाने नहीं भीष्म पितामह बोले तुमने ऐसे बाण नहीं मारे वत्स, जिनके घाव भर जाएं। तुम्हारे यह घाव तो मेरे सारे जीवन की कमाई है वत्स सारे जीवन की कमाई। अब तो जाने दे हट ना कर वत्स। भीष्म पितामह आगे बोलते हैं मेरी एक अंतिम सेवा कर दे वत्स, मेरे माथे पर मेरी मातृभूमि की थोड़ी सी मिट्टी लगा दे। अर्जुन बार-बार रोते हुए यही कह रहे थे कि पितामह मैं आपको जाने नहीं दूंगा। अर्जुन का विलाप देखकर वहां खड़े सभी की आंखों में आंसू आ गए। भीष्म पितामह अपने आंसुओं को रोकते हुए बोले, अरे रो मत वत्स, यह तो बड़े हर्ष की घड़ी है कि तेरा पितामह आज अपनी मातृभूमि की ऋण से मुक्त हो रहा है।

पितामह भीष्म युधिष्ठिर की ओर देखकर बोले हे पुत्र! हे राजन मैं एक पराजित योद्धा और पराजित नागरिक भी हूं। मुझसे यह सीखो पुत्र कि एक अच्छे योद्धा और एक अच्छे नागरिक को क्या नहीं करना चाहिए। विदुर ने मुझसे बार-बार कहा था वह बार बार मेरे सामने गिड़गिया और बोला हे तात श्री हस्तिनापुर के राज सिंहासन की ओर ना देखिए क्योंकि यदि हस्तिनापुर ही नहीं होगा तो यह सिंहासन कहां से होगा। किंतु मैं अपनी प्रतिज्ञा की मर्यादा में जकड़ा, हस्तिनापुर के सिंहासन पर बैठे राजा धृतराष्ट्र में अपने पिताश्री की छवि को देखता रहा। देश से बड़ा कोई नहीं होता पुत्र, ना पिता, ना पुत्र ना कोई प्रतिज्ञा। मेरी प्रतिज्ञा मुझे मेरे देश के तुमसे दूर करती चली गई और मैं,अपनी उस प्रतिज्ञा को छाती से लगाए रहा तथा अपने देश को सर्वनाश के मार्ग पर जाता हुआ देखता रहा। मेरी प्रतिज्ञा और पिता के प्रति निष्ठा मुझे देशद्रोह के मार्ग पर ले गई। बाणों की शैया पर लेटा यह एक देशद्रोही है। इतना कहते-कहते भीष्म पितामह की आंखों के आंसू जमीन पर गिर रहे थे। भीष्म पितामह आगे कहते हैं, लाक्षागृह का उत्तरदाई में हूं, द्रौपदी का वस्त्र हरण करने वाले मेरे यही हाथ हैं जिन्हें मेरे प्रिय अर्जुन ने इस देश की भूमि में ठोक दिया है। हर बाण मुझसे कह रहा है कि इस भूमि को पहचान गंगापुत्र, इस भूमि को पहचान अपने पिता की छवि के लिए तुमने किसी चुन लिया? हे पुत्र! मैं वह छत्रिय हूं जो अपनी प्रतिज्ञा का दास बन कर जिया। मेरे साथ मेरी मातृभूमि के अपमान का यह अध्याय भी समाप्त हो जाएगा।

पितामह भीष्म आगे कहते हैं हे पुत्र! तुम भी कभी ऐसी प्रतिज्ञा ना करना जो कटार बनकर तुम्हें ही काट दे और अपने देश से अलग कर दे। यदि तुमने ऐसी भूल की नाक तो तुम्हारा अंत भी ऐसी ही वाहनों की शैया पर होगा क्योंकि जब जब कोई देवव्रत देश के हितों का मार्ग रूप कर खड़ा होगा, तब तब उसे बाणों की शैया पर लिटाने कोई ना कोई अर्जुन अवश्य आएगा। हे पुत्र देश के हितों से बढ़कर राजा का कोई हित नहीं हो सकता। देश राजा के लिए नहीं होता पुत्र राजा देश के लिए होता है। हे पुत्रों किसी समाज की सही कुशलता की कसौटी यही है कि वहां नारी जाति का सम्मान होता है या अपमान। देश की सीमा माता के वस्त्र के समान होती है उसकी सदैव रक्षा करना पुत्र।

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भगवान कृष्ण बोले उन्हें धर्म और राजधर्म की भी शिक्षा दो पितामह। धर्म विधियों या औपचारिकताओं के अधीन नहीं हैं पुत्र युधिष्ठिर। धर्म अपने कर्तव्य और दूसरों के अधिकारों का संतुलन है। इसलिए धर्म का पालन अवश्य करो। राजधर्म भी यही है किंतु राजधर्म का दायित्व राजा के दायित्व से कहीं अधिक है। यदि किसी भी परिस्थिति में देश का विभाजन करना पड़े तो कुरुक्षेत्र में आ जाओ परंतु देश का विभाजन कभी ना हो पाए। क्या तुम पांचों भाई माता कुंती को आपस में काटकर बांट सकते हो और यदि नहीं तो मातृभूमि का विभाजन कैसे संभव हो सकता है? मैं यह पाप कर चुका हूं, इसलिए यह सब कह रहा हूं।भीष्म पितामह रोते हुए आगे कहते हैं युद्ध को टालने के लिए मैंने अपने देश का विभाजन तक स्वीकार कर लिया, तुम यह कभी ना करना पुत्र।

भीष्म पितामह बोले, अब मैं थक गया हूं वासुदेव, अब मुझे कुछ नहीं कहना। हे पुत्र अब तो मेरे माथे पर देश की मिट्टी का तिलक लगा दे। भगवान कृष्ण कहते हैं यह सौभाग्य मुझे प्राप्त करने दो पितामह। भीष्म पितामह उस घोर पीडा में भी हंसकर बोले जी तो मेरा भी यही चाहता था देवकीनंदन पर मैं तुम्हें आदेश नहीं दे सकता था। भगवान कृष्ण ने कुरुक्षेत्र से मिट्टी उठाकर उनके माथे पर लगा दी। इसके बाद पितामह कहते हैं बस अब जाने की आज्ञा दो वासुदेव। हे मातृभूमि! मुझे अपनी माताश्री के पास जाने की आज्ञा दीजिए। हे आकाश! मेरे देश को धूप, छांव, वर्षा की कभी कमी ना रहे, उसके वृक्ष सदा फलों से लदे रहे, उसके कमल खिले रहें, उसके जलाशय स्वस्थ और जीवित रहे, उसकी राजनीति की सूर्य को कभी ग्रहण ना लगे, इतना कहते ही पितामह भीष्म ने ओम का उच्चारण करके अपने प्राणों का त्याग कर दिया। इस महान आत्मा को जातात एक भगवान कृष्ण भी अपने आंसुओं को नहीं रोक पाए और भगवान कृष्ण रोते हुए बोले, धन्य है वह आंखें जो नश्वर के अनश्वर होने का दृश्य देखती रही, धन्य है यह भारत की भूमि जहां पितामह भीष्म जैसे शूरवीर ने जन्म लिया। भीष्म पितामह के चरणों में सादर प्रणाम।

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