प्यारे मित्रों मेने श्रीमद्भागवत गीता तब तक नहीं पढी़ थी जब तक मुझे ज्ञान नहीं हुआ कि हम सब आत्माएं हैं और यह जिंदगी हम आत्माओं के लिए एक इम्तिहान है। भगवद्गीता के 18 अध्याय हैं और ये संस्कृत में परमात्मा द्वारा दिए गए थे। समय के साथ संस्कृत भाषा रोजमर्रा की जिंदगी से निकल गई और यह ज्ञान मनुष्य से दूर हो गया। समय समय पर श्रीमद् भागवत गीता का साधारण अक्षरों में अनुवाद किया गया। इसी प्रयास को आगे बढ़ाते हुए में यहाँ श्रीमद्भागवत गीता के 7 उपदेश आसान रूप से प्रस्तुत कर रहा हूं।
पहला उपदेश – इस श्रष्टि में जो जन्म लेता है वह निश्चित रूप से म्रत्यु के अधीन हो जाता है
यहाँ भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि इस मृत्युलोक का हर एक प्राणी चाहे वह मनुष्य हो या पशु, पक्षी, पेड़-पौंधा हो हर सांस लेने वाला प्राणी अपने जन्म के साथ मृत्यु को भी लेकर आता है हर प्राणी को एक न एक दिन निश्चित क्षण पर मरना अर्थात अपने शरीर को त्यागना ही पड़ता है
दूसरा उपदेश – मनुष्य को सिर्फ कर्म करने का अधिकार है फल की ईच्छा ना करे
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि मनुष्य को चाहिए कि फल की ईच्छा त्यागकर कर्म को अपना धर्म समझकर करें क्योंकि जो भी मनुष्य फल प्राप्ति की इच्छा करता है, उसका मन फल के बारे में सोचकर अपने कर्म और कर्तव्य से विचलित हो जाता है और उस इंसान को फल की प्राप्ति नहीं होती है। जिसकी उसने ईच्छा की हुई थी इसलिए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि मनुष्य सिर्फ कर्म कर सकता है फल कदापि मनुष्य के अधीन नहीं है जो लोग फल की ईच्छा से ही कर्म करते हैं वो लोग सुख दुःख आदि के चक्र में फस जाते हैं और उनके मन की शांति नष्ट हो जाती है। मनुष्य अपने फल की ईच्छा को त्यागकर कर्म को अपना धर्म समझकर करे। तो उसको फल अवश्य मिल जायेगा परन्तु उस फल को वह व्यक्ति विधान की ईच्छा समझकर स्वीकार करले और ज्ञानी व्यक्ति भी इसी युग को अपनाकर कर्मयोगी बन जाते हैं
तीसरा उपदेश :- इस विश्व में केवल शरीर मरते हैं लेकिन आत्मा अविनाशी है।
शरीर के मरने पर भी आत्मा नहीं मरती है। यहाँ भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि आत्मा न कभी जन्म लेती है और ना ही कभी मरती है वो अजन्मी नित्य सनातन और पुरातन है जो शरीर के मारे जाने के बाद भी नहीं मरती है जो सचमुच ज्ञानी होते हैं वो ना उनका शौक करते हैं जो मर गए हैं और ना ही उनका शौक करते हैं जो अभी जिंदा है क्योंकि वह जानते हैं कि जो मर गया है, वो फिर से जन्म लेगा और जो अभी जीवित है, अवश्य ही मर जाएगा। मरने वाला फिर से जन्म लेगा क्योंकि केवल शरीर का नाश होता है शरीर के अंदर जो आत्मा है वह कभी भी नहीं मरती है क्योंकि आत्मा को ना कोई शस्त्र काट सकता है और ना ही उसे अग्नि जला सकती है ना ही जल गला सकता है और ना ही उसे वायु सुखा सकती है
चौथा उपदेश:- अपने मन को नियंत्रित करो। यहां भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि मनुष्य के शरीर का एक अदृश्य अंग है मन जो कभी दिखाई नहीं देता परन्तु वह इस शरीर का सबसे शक्तिशाली हिस्सा है मनुष्य को में के घमंड की मदिरा पिलाकर मदहोश करने वाला पाखंडी केवल यह मन ही है। उसके हाथों में मोह माया का जाल है जिसे वह मनुष्य की कामनाओं पर डालता रहता है और उसे अपने वश में करता रहता है यह मन अपने शरीर से भी मोह करता रहता है और अपनी खुशियों से भी और अपने दुखों से भी मोह करता रहता है खुशियों में खुशियों भरे गीत गाता है और दुख में दुख भरे गीत गुनगुनाता है अपने दुखों में दूसरों को शामिल करके उसे खुशी मिलती है किसी भी मनुष्य को उसका मन जीवन के जाल से निकलने नहीं देता अपनी रस्सी में बांधकर उससे तरह तरह के नाच नचवाता रहता है ऐसा तब तक होता रहता है जब तक हम अपने आप को मन के अधीन रहने देंगे तब तक हमारा मन हमें नाच नचाता रहेगा। मनुष्य का मन मनुष्य को इतनी फुर्सत भी नहीं देता कि वह अपने अंदर में झांककर अपनी आत्मा को पहचाने और अंदर जिस परमात्मा का प्रकाश है उस परमात्माकार करें।
पांचवा उपदेश:- हमारा शरीर और मन कैसे काम करता है? भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि मनुष्य का शरीर एक रथ के भांति है। जैसे आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा आदि इन इन्द्रिय घोड़ों को जो सारथी चलाता है वह सारथी ही हमारा मन है और उस रथ में बैठा हुआ स्वामी वही आत्मा है मनुष्य की इन्द्रियाँ विषयों की ओर आकर्षित होती रहती है। और यह तब तक हो सकता है जब तक जीवात्मा अपने मन को काबू में ना लाए जब तुम स्वयं अपने मन के अधीन न रहकर अपने मन को अपने अधीन कर लोगे तो वही मन एक अच्छे सारथी की तरह तुम्हारे शरीर रुपी रथ को सीधे प्रभू की शरण में ले जाएगा यदि मन तुम्हारा स्वामी है और तुम उसके अधीन हो तो वो तुम्हें माया के बंधन में जकडता रहेगा और जब तुम अपने मन पर काबू पा लोगे और तुम उसके स्वामी हो जाओगे तो वही मन तुम्हें मोक्ष के द्वार तक ले जाएगा
छटवां उपदेश:- भगवद्गीता के अनुसार इस दुनिया में तीन प्रकार की खुशी होती है।
तामसिक खुशी – पहले प्रकार की तामसिक खुशी हमें ज्यादा सोने से या हमें ज्यादा आलसी होने से मिलती है यानि आराम करने वाली खुशी
राजसिक खुशी दोस्तों हमें राजसिक खुशी किसी मटेरियल गोल को अचीव करने के बाद मिलती है जैसे कि पैसे कमाना, गाड़ी खरीदना, दारू पीना आदि चीजें करने से जो हमें खुशी मिलती है, वो राजसिक खुशी कहलाती है।
सात्विक खुशी – ये जो तीसरे प्रकार की खुशी होती है ना उसे सात्विक खुशी कहते हैं।भगवद्गीता यह कहती है कि तामसिक और राजसिक यह दोनों खुशियां अस्थायी होती है।
पर सात्विक खुशी है जो हमें जहर की तरह लगती है लेकिन बाद में वो अमृत की तरह लगने लगती है।
सातवाँ उपदेश:- एक ही कर्म किसी के लिए पाप बन जाता है और दूसरे के लिए उन्हें पुन्य बन जाता है। दोस्तों एक मनुष्य किसी कमजोर और बूढ़े व्यक्ति का धन लूटने के लिए उसकी हत्या कर देता है तो उस व्यक्ति को निश्चित ही उसके द्वारा किए गए कर्म का पाप लगता है और यदि दुष्ट मनुष्य किसी के साथ जबरदस्ती बलात्कार करने की कोशिश कर रहा है तो उसकी रक्षा करने के लिए अगर कोई व्यक्ति उस दुष्ट मनुष्य की हत्या कर देता है तो उसका उसे पाप नहीं लगता है। बल्कि पुन्य लगता है दोस्तों कर्म तो वही रहा किसी की हत्या करना परंतु उस कर्म के पीछे की भावना क्या है? और मारने वाले की नीयत क्या है इसी के फर्क से एक ही कर्म किसी के लिए पाप हो सकता है और दूसरे के लिए पुन्य हो सकता है,जिस भावना और नीयत से मनुष्य कर्म करता है उस नीयत के कारण एक ही कर्म किसी के लिए पाप बन जाता है और किसी के लिए पुण्य बन जाता है कर्म के इस ज्ञान के द्वारा ही मनुष्य को कर्म, विकर्म की पहचान होती है। दोस्तों इसका अर्थ यह है कि मनुष्य जब निष्काम भावना से कर्म करता है, तो उस कर्म का फल उसे नहीं भोगना पड़ता है इसलिए वो अकर्म हो जाता है कर्म उसे कहते हैं जिसे साकाम भाव से और फल की इच्छा से किया जा सके उसका फल मनुष्य को उसके कर्म के अनुसार अवश्य ही मिलता है।
जय श्री कृष्ण 🙏