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भगवान कृष्ण ने बताई कर्ण की सच्चाई

भगवान कृष्ण और गांधारी

महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। माता गांधारी भगवान कृष्ण से मिलने द्वारकापुरी जाती है। गांधारी को आते देखकर भगवान कृष्ण कहते हैं “प्रणाम माते, मेरे अहोभाग्य के आप यहां पधारी, मेरा मन बढ गया।” आइए माते कैसे कष्ट किया आपने? माता गांधारी बोली मैं तुमसे कुछ पूछना चाहती हूं वासुदेव तुम मुझे वचन दो कि तुम मुझे बताओगे। भगवान कृष्ण बोले आप जो पूछने आई हैं यदि उस विषय में मुझे कुछ भी ज्ञान हुआ तो मैं अवश्य बताऊंगा माते। माता गांधारी धीरे से बोली तुम्हें किस बात का ज्ञान नहीं है मधुसूदन, यदि तुम अंतर्यामी ना होती तो मैं तुम्हारे पास आती ही क्यों? भगवान कृष्ण मुस्कुरा कर बोले तो पूछिए माते प्रतीक्षा क्यों कर रही है। क्या जानना चाहती हैं आप?

माता गांधारी बोली मैं कुंती की आंखों में उमड़ते आंसुओं का भेद जाना चाहती हूं वासुदेव, मैं उसके दुख का रहस्य जानना चाहती हूं। आज उसने अपने अश्रुओ को मन का फैसला हुआ हर्ष बतायाउसे किस बात का दुख है वासुदेव?

भगवान कृष्ण बोले बातें दुख तो जीवन में इस प्रकार रहता है जिस प्रकार सूरज के साथ किरण और चंद्रमा के साथ चांदनी रहती है। दुख और जीवन तो एक ही बंधन के दो नाम होते हैं। जब तक शरीर में प्राण रहते हैं तब तक जीवन में दुख रहता है। दुख से तो उसी समय छुटकारा मिलता है जब स्वयं जीवन से छुटकारा मिल जाए। माता गांधारी करुणा भरे स्वर से बोली उसे क्या दुख है वासुदेव? यदि यह अश्रु मेरी आंखों में होते तो कोई आश्चर्य ना होता, मैंने एक-एक करके अपने सौ पुत्र को दिए, मेरा तो जीवन अश्रु में डूब चुका है परंतु कुंती ने तो कुछ भी नहीं खोया। सारा संसार जानता है कि उसके पांचो पुत्र जीवित है। भगवान कृष्ण बोले सारा संसार यह अवश्य जानता है की उसके पांचों पुत्र जीवित है क्योंकि सारा संसार यह समझता है कि उसके पांच ही पुत्र किंतु जो संसार समझता है, क्या केवल वही सत्य होता है माते? माता गांधारी कहती हैं तो सत्य भी तो यही है मधुसूदन। भगवान कृष्ण बोले नहीं माते, संसार उस सत्य को नहीं दे पाता जो समाज के खोखले आदर्शों और परंपराओं के आडंबरों के कारण स्वयं को छिपाने पर विवश हो जाते हैं। माता गांधारी कहती हैं तुम क्या कह रहे हो वासुदेव, मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूं? यदि यह सत्य नहीं तो फिर सत्य क्या है? भगवान कृष्ण बोले सत्य यह है कि बुआ कुंती के पांच नहीं छ: पुत्र थे।

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माता गांधारी बोली, नहीं यह कदापि नहीं हो सकता। भगवान भोले यदि ऐसा नहीं होता माते तो आप को उनके अश्रु में अंगारों जैसे गर्मी का अनुभव भी नहीं होता। माता गांधारी थोड़ा डर सी गई और दबी हुई आवाज में बोली किंतु उसका छठवां पुत्र कौन था? भगवान कृष्ण बोले अंगराज कर्ण, हां माते अंगराज कर्ण कौन्तेय थे। पांडवों के जेष्ठ भ्राता, अंगराज कर्ण का जन्म बुआ कुंती के विवाह से पूर्व सूर्यदेव के वरदान से हुआ था लेकिन कुंवारी माता कहलाने के लांक्षन स,उन्हेंं इस सत्य को संसार से छुपाना पड़ा। माता गांधारी रोते हुए बोली हमारा कर्ण कुंती पुत्र था तो कुंती ने मुझे बताया क्यों नहीं? यदि वह केवल मुझे ही बता देती तो ईश्वर की सौगंध यह महाभारत ना होता।

भगवान कृष्ण थोड़ा गंभीर स्वर में बोले, लोग इस शब्द “यदि” का प्रयोग बड़ी निर्दयता से करते हैं माते। लोग यही कहते हैं यदि ऐसा ना हुआ होता तो ऐसा हो जाता और यदि ऐसा हो जाता तो ऐसा ना हुआ होता, किंतु लोग इतना नहीं जानते कि इस यदि शब्द के हाथों इतने छोटे होते हैं कि वह मनुष्य की भाग्य के लेख,होनी और नियति के पास भी नहीं पहुंच सकते, उसे रोकना तो बहुत दूर की बात है होनी और नियति ने निर्णय कर लिया था की महाभारत का युद्ध होगा, इसलिए इस युद्ध को कोई नहीं रोक सकता था माते।

माता गांधारी कहती हैं तुम ठीक कहते हो केशव इस युद्ध को कोई नहीं रोक सकता था, होनी होकर ही रहती है।

भगवान श्रीकृष्ण आगे कहते हैं माते सुख-दुख, सर्दी और गर्मी की तरह है। सुख-दुख का आना सर्दी, गर्मी की आने जाने जैसा है। इसलिए इन्हें सहन करना सीखना चाहिए। जिसने गलत इच्छाओ और लालच का त्याग कर दिया है सिर्फ उसे ही शांति मिल सकती है। इस सृष्टि में कोई भी इच्छा से मुक्त नहीं हो सकता लेकिन बुरी इच्छाओं को छोड़ जरूर सकता है। मेरे कहने का अर्थ इतना है माते की हमारे जीवन में सुख-दुख आते रहते हैं, उनके विषय में परेशान नहीं होना चाहिए। अगर दुख है तो उसे सहन करना सीखना चाहिए क्योंकि आज दुख तो कल सुख भी आएगा, यह क्रम इसी प्रकार चलता रहता है। आप केवल निस्वार्थ भाव से कर्म कीजिए, वही आपके हाथ में है। दोस्तों इस कहानी से यह सीखने को मिलता है कि हमें अपने जीवन में सुख दुख की चिंता करने की वजाय निरंतर कर्म करते रहना चाहिए।

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