महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। भगवान कृष्ण द्वारकापुरी वापस लौटे और अपने महल में विश्राम कर रहे थे। तभी उनके पास बलराम जी आए और बोले, कन्हैया मेरे मन में एक प्रश्न बार-बार आ रहा है।
भगवान कृष्ण ने कहा बताइए दाऊ भैया आप क्या पूछना चाहते हैं आप? बलराम जी ने कहा महाभारत के युद्ध में जो भी हुआ, पितामह भीष्म का वध, द्रोणाचार्य, दुर्योधन, दुशासन का वध, तो उचित था परंतु कन्हैया महादानी कर्ण का ऐसा अंत क्यों? वह एक श्रेष्ठ मित्र, महापराक्रमी और महादानी था। जिसने स्वयं की माता कुंती को अर्जुन के सिवाय किसी अन्य पांडव को नहीं मारने का वचन दिया था। अपने कवच और कुंडल जानबूझकर ब्राह्मण वेशधारी इंद्र को दान में दे दिए। ऐसे महान दानवीर में किस कर्म का फल भोगा?
भगवान कृष्ण कहते हैं सुनिए दाऊ भैया, वैसे तो दुर्योधन के अधर्म में जिसने भी साथ दिया था वे सभी पाप के भागी बन गए। उनको उनके कर्मों का फल तो मिलना ही था। कर्ण दानवीर होते हुए भी उसको दान से अर्जित पुण्य अंतिम समय पर साथ नहीं दे सके। इसका कारण यह है की जब महाभारत युद्ध में सात-सात महारथियों के सामने अकेले युद्ध करता हुआ महावीर अभिमन्यु, युद्ध भूमि में धराशाई हो गया था। जब वह बुरी तरह से घायल मृत्यु के द्वार पर खड़ा था तब उसने युद्ध भूमि में अपने समीप खड़े अंगराज कर्ण से अपनी प्यास बुझाने के लिए याचना की। अभिमन्यु ने याचना किस विश्वास से की थी के भले ही वह शत्रु पक्ष का है लेकिन महादानी होने के कारण वह उसकी प्यास को शांत करने के लिए जल अवश्य देगा। लेकिन दाऊ भैया कर्ण के पास जल होने के बावजूद भी उसने जल इसलिए नहीं दिया कि उसका प्रिय मित्र दुर्योधन नाराज हो जाएगा और करण ने वह जल अभिमन्यु के आगे रणभूमि में बहा दिया।
इस प्रकार महादानी कर्ण जलदान नहीं कर पाया उसने मृत्यु के द्वार पर खड़े याचक की अवहेलना की थी और युद्ध भूमि में बालक अभिमन्यु को अपने सूखे के कंठ से प्राण त्यागने पड़े।
हे दाऊ भैया अंगराज कर्ण के पास जल होते हुए भी मृत्यु के द्वार पर खड़े हुए को जल नहीं दिया। इसलिए कर्ण के एकमात्र पाप ने उसके संपूर्ण जीवन में किए हुए दानों से अर्जित पुण्य को नष्ट कर दिया और काल की गति दीजिए उसी जल के स्रोत से उत्पन्न कीचड़ में कर्ण का पाया जाता है और महारथी कर्ण के अंत का कारण बन जाता है। इसे मैं स्वयं नहीं रोक सकता था यही तो कर्मों का फल है दाऊ भैया।
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किसी के साथ किए गए अन्याय का एक ही पल आपके संपूर्ण जीवन की प्रमाणिकता को सुन्न करने हेतु पर्याप्त है। इस कहानी से हमें यही सीखने को मिलता है कि सभी को अपने किये कर्मों का फल, यही इसी जीवन में तथा इसी पृथ्वी पर अवश्य भोगना पड़ता है। यह हम सभी जानते हैं की यदि हमें कर्मों के फल का डर ना होता तो आज गंगा किनारे इतनी दूर ना होती। यह जरूरी नहीं कि इंसान रोज मंदिर जाए बल्कि कर्म ऐसे होने चाहिए कि इंसान जहां भी जाए मंदिर बन जाए। जिस प्रकार एक बछड़ा हजारों गायों के बीच अपनी मां को ढूंढ लेता है उसी प्रकार कर्म करोड़ों लोगों में अपने कर्ता को ढूंढ लेता है। अगर आप किसी के साथ गलत करने जा रहे हो तो अपनी बारी का इंतजार जरूर करना ईश्वर माफ कर सकता है कर्म नहीं।