जब मरते हुए द्रोणाचार्य ने श्रीकृष्ण से पूछा आखिर मेरा दोष क्या था क्यों मुझे धोखे से मारा गया। उसके बाद भगवान श्री कृष्ण ने बताया असली सच,
द्रापरयुग में एक ऐसे व्यक्ति का जन्म हुआ जिसे दुनिया ने सर्वश्रेष्ठ गुरु मानती थी लेकिन भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें एक पिता और गुरु में विफल माना था वे कोई और नहीं बल्कि पांडवों और कौरवों के गुरु द्रोणाचार्य थे।
महाभारत के युद्ध के दौरान जब पांडव पक्ष को लगा कि गुरु द्रोणाचार्य को हरा पाना असंभव है तब अश्वत्थामा मारा गया यह झूठी खबर चारों तरफ फैला दी जिससे पुत्र के वियोग में आकर द्रोणाचार्य शस्त्रों का त्याग कर दें तभी उनका वध कर पाना संभव हो सकेगा।
युधिष्ठिर के मुख से सुनने पर द्रोणाचार्य ये सब सच मान बैठे और अपने शस्त्रों का त्याग कर दिया, लेकिन इसी दौरान द्रोणाचार्य ने श्री कृष्ण से कई सवाल किये जिसका सच सुनने के बाद द्रोणाचार्य को मृत्यु को स्वीकार करना पड़ा।
गुरु द्रोणाचार्य ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा हे महाज्ञानी परम तेजस्वी वासुदेव मैं बचपन से ही आश्रम में पला-बढ़ा मैंने अपने जीवन में निर्धनता तथा गरीबी का मुख देखा। मैंने अपने जीवन में बहुत कठिनाइयों को झेला क्या मेने पूर्व जन्म में कोई पाप किया था। मैंने अपने मित्र द्रूपद से धोखा खाया और जिस राज को विजय दिलाई उसी राज से निकाला गया। हे वासुदेव आखिर इन सब में मेरा क्या दोष था? क्या अपने मित्र की सहायता करना कोई पाप है।
जब मेने कठोर तपस्या की तब अश्वत्थामा का जन्म हुआ, लेकिन गरीबी के कारण उसे दूध की जगह पर आटे का घोल पिलाता रहा, आखिर इसमें मेरा क्या दोष था। क्या दया की भावना रखना मेरा पाप था?
जिस प्रकार मैंने गुरु परशुराम से शिक्षा प्राप्त की वही सटीक ज्ञान मैंने कौरव और पांडवों को बराबर मात्रा में दिया, लेकिन आज भी एकलव्य का अंगूठा मेरे जीवन का सबसे बड़ा लांछन है। आखिर इसमें मेरा क्या दोष था? क्या अपने वचन को निभाना मेरा सबसे बड़ा पाप था।
भरी सभा में द्रोपदी का वस्त्रहरण में धर्म निभाने के कारण रोक नहीं सका, लेकिन मैंने अपने पुत्र अश्वत्थामा को श्राप अवश्य दिया था। फिर इसमें मेरा क्या दोष था, क्या राजकीय धर्म का पालन करना मेरा सबसे बड़ा पाप था।
तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहा हे भरद्वाज पुत्र द्रोण निर्धनता आखिर किसने नहीं देखी एक शिशु जन्म से ही निर्धन होता है, लेकिन कुबेर के भंडार को पाने के लिए मेहनत, संघर्ष और धैर्य अति आवश्यक होता है। जिस प्रकार आपने अपने मित्र से धोखा खाया वैसे ही बाली ने सुग्रीव से और रावण ने विभीषण से खाया था भले ही उनके कर्मों में अंतर रहा हो, लेकिन कार्य समान ही था। ऐसे समय में धैर्य ही इंसान का सबसे बड़ा साथी होता है लेकिन बदले की भावना में आपने अपनी मृत्यु का शस्त्र स्वयं तैयार कर लिया वो भी द्रष्टद्युम्न के रूप में और इसी कारण वहीं से द्रौपदी का जन्म भी हुआ और महाभारत की नींव भी वहीं से रखी गई।
हे भारद्वाज पूत्र द्रोण आप सर्वश्रेष्ठ है और सर्वश्रेष्ठ ही रहेंगे लेकिन एक योद्धा के रुप में बल्कि एक गुरु और पिता के रूप में बिल्कुल नहीं । दुनिया आपको जानेगी अर्जुन के गुरु के रूप में बल्कि सर्वश्रेष्ठ गुरु के रूप में नहीं।
एक गुरु का दायित्व होता है कि वह अपने शिष्य को श्रेष्ठ तथा उत्तम बनाए एक गुरु का दायित्व होता है कि वह अपने शिष्य को धर्म-अधर्म के बीच का अंतर समझाए और अगर वह यह भी नहीं कर पाया तो वह एक शिक्षक के रूप में विफल माना जाता है।
वहीं एक पिता का कर्तव्य होता है कि वह सारे मोह का त्याग करके अपने पुत्र के चरित्र को उत्तम बनाए।
एक गुरु के रुप में आप सिर्फ अर्जुन के गुरु नहीं बल्कि आप अपने आश्रम में मौजूद अपने सभी शिष्यों के गुरु थे, लेकिन आपने अर्जुन को प्रिय समझा। वही कौरवों को सिर्फ आपने युद्ध की ही शिक्षा दी उनके चरित्र के निर्माण का कार्य आपने किया ही नहीं था। जब इंसान बालक होता है तभी वो शिष्टाचार को सीखता है और यह आपका प्रथम कर्तव्य था कि आपको दुर्योधन और उसके भाइयों के चरित्र का निर्माण करना था, लेकिन आप उसमें विफल रहे। आप यह जानते हुए भी कि दुर्योधन और उसके भाई अधर्मी होते जा रहे हैं फिर भी आपने कुछ नहीं किया।
वहीं अगर आप एक पिता के रूप में सफल होते तो आज आपको अधर्म के पक्ष में खड़ा होकर युद्ध नहीं करना पड़ता आपने अश्वत्थामा को उसके बल और ज्ञान से अधिक शिक्षा दी लेकिन मोह के वश में होकर आपने अपने पुत्र के चरित्र का निर्माण नहीं किया अगर आपने अपने मोह का त्याग किया होता और कठोर रहते तो बचपन में ही वो दुर्योधन के साथ गया था तब आपने कठोरता बिल्कुल नहीं दिखाई अगर कठोरता दिखाई होती और उसे धर्म के पथ पर चलने के लिए विवश किया होता तो शायद उसके अंदर का धर्म जिंदा रहता और द्रोपदी के साथ भरी सभा में ऐसा पाप नहीं होता।
अगर आप धर्म का पालन करते और गुरु होने का दायित्व निभाते तो आज महाभारत ही नहीं होता।
इतना सुनते ही द्रोणाचार्य की आंखों से आंसू निकलने लगे और उन्होंने अपने शस्त्रों का त्याग कर दिया और फिर उन्होंने वहीं पर समाधि ले ली और योग साधना में लीन हो गए। उनकी आत्मा का एक अंश बृहस्पति देव में लीन हो गया तभी द्रूपद पुत्र द्रष्टद्युम्न ने उनकी गर्दन को धड़ अलग कर दिया। इस प्रकार कौरवों और पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य का वध हुआ।
भगवान श्री कृष्ण के इन कथनों से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है किस प्रकार एक शिक्षक और एक पिता अपने बच्चों के चरित्र का निर्माण करके उन्हें एक अच्छा व्यक्तित्व दे सकते हैं और उन्हें एक अच्छा इंसान बना सकते हैं।
तो दोस्तों आशा करते हैं कि आपने इस प्रसंग से बहुत कुछ सीखा होगा।
धन्यवाद 🙏
Very nice story 👏