दोस्तों महाभारत एक ऐसा महाकाव्य है जिसमें जीवन से संबंधित सभी प्रश्नों व समस्याओं का हल आसानी से मिल जाता है। एक आम व्यक्ति के जीवन में आने वाली सभी समस्याएं यदि ध्यान से देखे जाएं तो महाभारत में आसानी से मिल जाती है। इसके अतिरिक्त महाभारत में गीता के ज्ञान की तुलना किसी भी ग्रंथ से नहीं की जा सकती।
दोस्तों आज मैं आपके साथ महाभारत की कुछ ऐसे ही प्रसंगों को साझा करूंगा। मेरा आपसे वादा है इन प्रश्नों से आपको जरूर कुछ ना कुछ सीखने को मिलेगा।
- महाभारत कहानी – कृष्ण और भीष्म पितामह का संवाद

महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। युद्ध भूमि में चारों तरफ योद्धाओं के फटे वस्त्र, मुकुट, टूटे शस्त्र, टूटे रथो के चक्के आदि बिखरे हुए थे और वायुमंडल में पसरी हुई थी घोर उदासी। गिद्ध कुत्ते सियारों की उदास और डरावनी आवाजों के बीच निर्जन हो चुकी उस भूमि में द्वापर के सबसे महान योद्धा भीष्म पितामह सरसैया पर पडे, सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा कर रहा था। तभी उनके कानों में एक परिचित ध्वनि शहद घोलती हुई आई “प्रणाम पितामह” भीष्म के सुख चुके होठों पर एक मरी सी तैर उठी। और भीष्म पितामह बोले आओ देवकीनंदन कृष्ण स्वागत है आपका। मैं बहुत देर से तुम्हारा ही स्मरण कर रहा था। कृष्णा बोले क्या कहूँ पितामह, अब तो मैं यह भी नहीं पूछ सकता कि कैसे हैं आप ? भीष्म पितामह चुप रहे, कुछ क्षण बाद बोले, कुछ पूछूं केशव बड़े अच्छे समय से आए हो।
संभवत शरीर छोड़ने से पूर्व मेरे मन में अनेक भ्रम समाप्त हो जाएंगे। कृष्ण बोले कहिए पितामह, भीष्म पितामह ने कहा एक बात बताओ कृष्ण, तुम तो ईश्वर होना, कृष्ण ने बीच में ही डूबते हुए कहा नहीं बताना मैं तो आपका पौत्र हूं ईश्वर नहीं। भीष्म उस गौर पीड़ा में भी ठहाके लगाकर हंस पड़े और बोले कृष्ण में अपने जीवन का स्वयं का भी आकलन नहीं कर पाया। संभवत नहीं जानता कि अच्छा रहा या बुरा पर अब तो इस धरा से जा रहा हूं कन्हैया, अब तो ठगना छोड़ दो। कृष्ण भीष्म पितामह के थोड़ा पास आए और बोले कहिए पितामह क्या पूछना चाहते हैं आप ? भीष्म पितामह बोले “एक बात बताओ कन्हैया इस युद्ध में जो हुआ वह ठीक हुआ था क्या? कृष्ण ने कहा किस की ओर से पितामह पांडवों की ओर से या कौरवों की ओर से। भीष्म पितामह ने कहा, कौरवों के कृतियों पर तो चर्चा का अब कोई अर्थ ही नहीं रह जाता कन्हैया। आचार्य द्रोण का वध, दुर्योधन की जंघा के नीचे प्रहार दुशासन की छाती का चीरा जाना, जयद्रथ के साथ हुआ छल, निहत्थे कर्ण का वध, क्या यह सब ठीक था? कृष्ण ने कहा इसका उत्तर मैं कैसे दे सकता हूं पितामह, इसका उत्तर तो पांडवों को देना चाहिए। मैं तो इस युद्ध भूमि में था ही नहीं पितामह। भीष्म पितामह ने कहा अब भी छलना नहीं छोड़ोगे कृष्ण अरे विश्व भले ही कहता रहे कि महाभारत को अर्जुन और भीम ने जीता है पर मैं जानता हूं कन्हैया कि यह केवल तुम्हारी और केवल तुम्हारी विजय है, मैं तो उत्तर तुम ही से पूछूंगा कृष्ण। भीष्म पितामह के इतना कहते ही कृष्ण थोड़ा गंभीर स्वर में बोले तो सुनिए पितामह, कुछ बुरा नहीं हुआ, कुछ अनैतिक नहीं हुआ, वही हुआ जो होना चाहिए। भीष्म पितामह ने कहा यह तुम कह रहे हो केशव! मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम का अवतार कृष्ण कह रहा है। यह छल तो किसी युग में हमारे सनातन संस्कारों का अंग नहीं रहा, फिर यह उचित कैसे हुआ? कृष्ण ने कहा इतिहास से शिक्षा ली जाती है पितामह, पर निर्णय वर्तमान की परिस्थितियों के आधार पर लेना पड़ता है। हर युग अपने तर्कों और अपनी आवश्यकता के आधार पर अपना नायक चुनता है। राम त्रेता युग के नायक थी मेरे भाग्य में द्वापर आया हम दोनों का निर्णय एक सा नहीं हो सकता पितामह। भीष्म पितामह ने करुणा भरे स्वर से कहा मैं समझ नहीं पाया। कृष्ण ने कहा पितामह राम और कृष्ण की परिस्थितियों में बहुत अंतर है। राम के युग में खलनायक भी रावण जैसा शिव भक्त होता था तब रावण जैसी नकारात्मक शक्तियों के परिवार में भी विभीषण जैसे संत हुआ करते थे, तब बाली जैसे खलनायक के परिवार में भी तारा जैसी विदेशी स्त्रियां और अंगद जैसे सज्जन पुत्र होते थे। उस युग में खलनायक भी धर्म का ज्ञान रखता था इसलिए श्रीराम ने उनके साथ कभी छल नहीं किया, किंतु मेरे युग में कंस, जरासंध, दुर्योधन, दुशासन, शकुनी, जयद्रथ जैसे घोर पापी आए उनकी समाप्ति के लिए हर छल उचित है पितामह, पाप का अंत आवश्यक है पितामह, वह चाहे जिस विधि से भी हो। भीष्म पितामह ने उन्हें प्रश्न किया, तो तुम्हारे इन निर्णय से गलत परंपराएं प्रारंभ नहीं होंगी केशव? क्या भविष्य तुम्हारे इन छलो का अनुसरण नहीं करेगा? और यदि करेगा तो क्या उचित होगा कन्हैया ?? कृष्ण ने कहा भविष्य तो इससे भी नकारात्मक आ रहा है पितामह। कलयुग में तो इतने से ही काम नहीं चलेगा, वहां तो मनुष्य को कृष्ण से भी अधिक कठोर होना पड़ेगा, नहीं तो धर्म समाप्त हो जाएगा। जब क्रूर और अनैतिक सकती हैं सत्य एवं धर्म का समूल नाश करने के लिए आक्रमण कर रही हो तो नैतिकता अर्थहीन हो जाती है पितामह, तब महत्वपूर्ण होती है विजय और केवल विजय, भविष्य को यह सीखना ही होगा पितामह।
भीष्म पितामह ने पूछा “क्या धर्म का विनाश हो सकता है केशव और यदि धर्म का नाश होना ही है तो क्या मनुष्य से नहीं रोक सकता ? कृष्ण ने कहा सब कुछ ईश्वर के भरोसे छोड़ कर बैठना मूर्खता होती है, ईश्वर स्वयं कुछ नहीं करता वह केवल मार्गदर्शन करता है, सब मनुष्य को ही प्रेम करना पड़ता है। आप मुझे ईश्वर कहते हैं ना तो आप बताइए ना पितामह मैंने प्रेम स्टेट में कुछ किया क्या ? सब कुछ पांडवों को ही करना पड़ा ना, यही प्रकृति का विधान है, युद्ध के प्रथम दिन यही तो कहा था मैंने अर्जुन से यही परम सत्य है। कृष्ण की बातों को सुनकर भीष्म पितामह संतुष्ट लग रहे थे, की आंखें धीरे-धीरे बंद होने लगी उन्होंने कहा चलो कृष्ण यह इस धरती पर अंतिम रात्रि है कल संभवत चले जाना होगा। भीष्म पितामह ने कहा अपने इस अभागे भक्त पर कृपा करना कृष्ण, कृष्ण मन ही मन कुछ कहा और भीष्म पितामह को प्रणाम कर लौट गए।
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लेकिन युद्ध भूमि में उस डरावने अंधकार में भविष्य को जीवन का सूत्र मिल चुका था। जब नैतिक और ग्रुप शक्तियों सत्य और धर्म का विनाश करने के लिए आक्रमण कर रही हो तो नैतिकता का पाठ आत्मघाती होता है। ईश्वर स्वयं कुछ नहीं करता ईश्वर सिर्फ राह दिखाते हैं, सब कुछ हमें ही करना पड़ता है और ईश्वर के भरोसे हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहना मूर्खता है।
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- 2.महाभारत कहानी – कृष्ण सीखी जाने वाली एक सीख

एक बार कृष्ण, बलराम और सात्यकि यात्रा के दौरान शाम हो जाने के कारण एक भयानक बन में रात्रि विश्राम के लिए रुके। उन्होंने निश्चय किया कि दो-दो घंटे के लिए बारी बारी से पहरा देंगे। उस जंगल में एक भयानक राक्षस रहता था जब सात्यकि पहरा दे रहा था तो वह राक्षस आ गया और उसे डराने लगा। सात्यकि और राक्षस का युद्ध हुआ सात्यकि पराजित होकर जान बचाकर बलराम जी के पास पहुंचे। अब बलराम जी को भी राक्षस ने खूब डराया और उसके साथ युद्ध हुआ बलराम ने देखा राक्षस की शक्ति तो बढ़ती जा रही है तब उन्होंने कृष्ण को जगाया।
राक्षस ने श्री कृष्ण पूर्वी डराया और श्री कृष्ण बोले तुम बहुत बड़े आदमी हो तुम्हारे जैसे दोस्त के साथ रात अच्छे से कट जाएगी। तो राजसमंद हंसकर पूछा मैं तुम्हारा दोस्त कैसे हुआ ? तभी श्रीकृष्ण बोले भाई तुम अपना काम छोड़कर मेरा सहयोग करने आए हो, पूछ रही हूं मुझे जल्दी आलस्य ना आ जाए इसलिए हंसी मजाक करने आ गए हो। राक्षस ने श्रीकृष्ण को बहुत डराने की कोशिश की लेकिन वह बिल्कुल नहीं डरे और हंसते रहे।
परिणाम यह हुआ कि राक्षस की ताकत घटने लगी और देखते ही देखते एक छोटी मक्खी जैसा हो गया। श्री कृष्ण ने उस राक्षस को पकड़कर अपने पीतांबर में बांध लिया। तब श्री कृष्ण बलराम और सात्यकि से कहा जानते हो यह राक्षस कौन है? यह आवेश है।
मनुष्य के अंदर भी यह आवेश या क्रोध का राक्षस घुस जाता है और मनुष्य उसे जितनी हवा देता है, वह उतना ही दुगना, तिगुना, चौगुना होता चला जाता है। इस राक्षस की ताकत तभी घटती है जब इंसान अपने आप को संतुलित रखता है। इस क्रोध रूपी राक्षस की जितनी उपेक्षा करोगे वह उतना ही घटता जाता है और जितना बदले की भावना रखोगे तो या बढ़ता ही जाएगा।
हमें इस कहानी से सीखना चाहिए कि आजकल छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा हो जाना घर पर, पड़ोस, सभी जगह ना होने वाली बातों पर भी हम आवेश और क्रोध में आ जाते हैं। हम सोचते हैं कि हम सामने वाले पर गुस्सा हो रहे हैं तो उसे सजा दे रहे हैं पर ऐसा नहीं है गुस्से से सबसे ज्यादा नुकसान स्वयं को ही होता गुस्से से हमारा मन असंत रहता है इसका प्रभाव हमारे तन पर पड़ता है। दोस्तों इस गुस्से रूपी राक्षस की शक्ति मत बढ़ाओ अपने गुस्से को नियंत्रण करने का प्रयास करो।।
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- 3.महाभारत कहानी – भीष्म पितामह के कर्मों का फल

प्रेरक प्रसंग उस समय का है जब भीष्म पितामह रणभूमि में सरसैया पर पड़ी थे। जरा सा भी एंट्री तो शरीर में घुसे बाण भारी वेदना के साथ रक्त की पिचकारी ही छोड़ देते। ऐसी दशा में उनसे मिलने सभी आ जा रही थे। श्री कृष्ण भी उनके दर्शन के लिए आए उनको देखकर भीष्म पितामह जोर से हंसे और कहा आइए जगन्नाथ आप तो सर्व ज्ञाता है, सब कुछ जानते हैं तो बताइए मैंने ऐसा कौन सा पाप किया था जिसका दंड इतना भयावह मिला। कृष्ण बोले, पितामह आपके पास वह शक्ति है जिससे आप अपने पूर्व जन्म को देख सकते हैं, आप स्वयं ही देख लेते पितामह। भीष्म पितामह करुणा भरे स्वर में बोले, हे देवकीनंदन मैं यहां अकेला पड़ा और कर ही क्या रहा हूं मैंने सब कुछ देख लिया और अभी तक सौ जन्म देख चुका हूं। मैंने उन 100 जन्मों में एक भी कर्म ऐसा नहीं किया कि जिसका परिणाम यह हो कि मेरे पूरे शरीर को बाणो ने भेद रखा हो और शरीर से रक्त निकल रहा हो, इसके साथ ही हर आने वाला क्षण पीडा लेकर आता है। श्री कृष्ण पितामह के और पास गई और बोले खेता में एक जन पीछे और जाइए आपको उत्तर मिल जाएगा।
भीष्म पितामह ने ध्यान लगाया और देखा कि 101-वे जन्म में भी एक नगर के राजा थे। एक दिन वे मार्ग से अपनी सेना की एक टुकड़ी के साथ कहीं जा रही थे। एक सैनिक दौड़ता हुआ आया और बोला “राजन मार्ग में एक सर्प पड़ा है, अगर हमारी टुकड़ी उसके ऊपर से गुजरी तो वह मर जाएगा। भीष्म पितामह ने कहा एक काम करो उस सर्प को बाण में लपेटकर फेंक दो। उस सैनिक ने वैसा ही किया और उस सांप को एक बाण की नोक पर उठाकर झाड़ियों में फेंक दिया। दुर्भाग्य से वह सांप एक झाड़ी में गिर गया और वह झाड़ी कंटीली थी। वह सर्प जितना उससे निकलने का प्रयास करता और अधिक फंस जाता और झाड़ी के कांटे उसके शरीर में गढ़ गए और खून रिसने लगा, इससे झाड़ियों में मौजूद चीटियां उसके खून को धीरे-धीरे चूंसने लगी और धीरे-धीरे वह मृत्यु के मुंह में जाने लगा। 56 दिन की तड़प के बाद उसके प्राण निकल पाए।” भीष्म बोले हे त्रिलोकीनाथ! आप जानते हैं कि मैंने जानबूझकर ऐसा नहीं किया था। मेरा उद्देश्य तो उस सांप की रक्षा करना था, फिर यह परिणाम क्यों? कृष्ण बोले पितामह हम जानबूझकर क्रिया करें या अनजाने में किंतु क्रिया तो हुई ना उसके प्राण तो गए ना। विधि का विधान है जो क्रिया हम करते हैं उसका फल तो भोगना ही पड़ता है।
पितामह आपका तुमने इतना प्रबल था कि 101 उस पाप फल को उदित होने में लग गए लेकिन अंत में तो वही हुआ। किसी जीव को लोग जानबूझकर मार देते हैं तथा मरते समय इस जीव ने जितनी पीड़ा सही है, उतनी ही पीड़ा मारने वाले जीव को सहनी पड़ती है, इस जन्म में अथवा अन्य किसी जन्म में। पास में ही धृतराष्ट्र खड़े हुए सब सुन रहे थे और उन्होंने कहा हे देवकीनंदन मैंने ऐसा कौन सा कर्म किया कि मुझे भी अपने 100 बेटों की मृत्यु का शोक मिला।
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श्री कृष्ण अपने योग बल से देखा कि वर्षों पहले धृतराष्ट्र एक राजा थे वह स्वादिष्ट व्यंजनों में खोए रहते थे। धृतराष्ट्र बिना विचार किए जो भी सामने आ जाता खा लेते थे। एक रसोइए ने हंस के 100 बच्चों का मांस बनाकर एक-एक करके राजा को खिला दिया। और भगवान आगे बोले हे राजन आप स्वार्थ में अंधे हो गए। आप इस जन्म में अंधे बने हैं। तुम्हारे पुण्य के प्रभाव से 100 जन्मों तक तो तुम्हें कर्मों का फल नहीं मिला, लेकिन इस जन्म में तुम्हें हंस के 100 बच्चों को खाने का फल मिल गया है तभी तुम्हारे 100 पुत्र मारे गए।
कर्मों का फल तो सभी को भोगना ही पड़ता है, इसलिए दोस्तों आप जो भी काम करें, उससे अच्छा करें क्योंकि अगर आप बुरा काम करोगे तो आपको ही कर्मों का फल भोगना ही पड़ेगा।।
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- 3.महाभारत कहानी – कर्ण ने तोड़ा इंद्र का घमंड

यह प्रेरक प्रसंग उस समय का है, जब कर्ण गुरु परशुराम के पास शिक्षा प्राप्त कर रहा था। एक दिन आश्रम में कुछ किसान आए और गुरु परशुराम से बोले “प्रभु रक्षा करो, प्रभु चौमासा बीतने को है लेकिन आकाश में एक बूंद जल की नहीं गिरी और अभी भी बरसात ना हुई तो महाकाल पड़ेगा। आपके आश्रम में हर वह हरियाली है लेकिन आपके आश्रम की सीमा के बाहर एक बूंद भी पानी की नहीं पड़ी। आपका कोप न सहना पड़े इसलिए आपके आश्रम में वर्षा हुई। यह कहां का न्याय है प्रभु।” भगवान परशुराम ने आकाश की ओर देखा और बोली देवराज इन्द्र! इसके बाद किसान बोले देवराज चाहते हैं कि उनकी पूजा की जाए। प्रभु आपके परशु के बल से तो तीनों लोक कांपते हैं ,हमारी मदद करो। इसके बाद भगवान परशुराम बोले मैं शपथ ले चुका हूं कि मैं कभी शस्त्र नहीं उठाऊंगा, कभी युद्ध नहीं करूंगा। तभी किसान बोले तो क्या प्रभु इंद्र की मनमानी चलती रहेगी ?भगवान परशुराम मुख्य स्वर में बोले मैंने ऐसा नहीं कहा देवराज इंद्र का अहंकार टूटेगा और अवश्य टूटेगा। देवराज को कर्तव्य का पाठ अवश्य पढ़ाया जाएगा, परंतु गुरु परशुराम के वचनों से नहीं एक शिष्य के बाणों से और भगवान परशुराम कर्ण को आदेश देते हैं “कर्ण समय आ गया है संग्राम का, मेरी शिक्षा के परिणाम का, कर्ण इंद्र को जगाना है तो इंद्रधनुष का निर्माण करना होगा।”
कर्ण अपना धनुष बाण उठाता है और आकाश की ओर संधान करता है तथा इंद्रधनुष का निर्माण करता है। जैसे ही आकाश में इंद्रधनुष का निर्माण होता है तो देवराज इंद्र प्रकट होते हैं। देवराज बहुत गुस्सा में होते हैं और बोलते हैं प्रसन्न करके देवराज का आह्वान बातों ने किया है किंतु रुस्ट करके मेरा आह्वान करने वाले उद्दंड कौन हो तुम ? इसके बाद कर्ण उत्तर देता है राधे कर्ण! फिर देवराज कहते हैं आह्वान करने के दो ही कारण होते हैं भक्ति के लिए या चुनौती के लिए, परंतु देवराज को चुनौती देने के लिए आपकी आयु बहुत कम है और तुम्हारी उद्दंडता देख तुम्हें भक्त समझना गलत है।
इसके बाद कर्ण गुस्से में कहता है “भक्त तो मैं हूं देवराज परंतु आपका नहीं अपने गुरु का, यहां आपको चुनौती देने आया हूं।” कर्ण की बातें सुनकर देवराज हंसने लगे और बोले मुझे चुनौती देने आए हो कर्ण, देवराज इन्द्र को, देवराज इंद्र को चुनौती देने वाले वाला कहां से आए हो, मुझे ललकार ने वाले का कुल क्या है?, जाति क्या है? तभी कर्ण बोलता है, वीरों की जाति नहीं देखी जाती और वीरों का कुल नहीं पूछा जाता है, वीरों का बाहुबल ही उनकी जाति होती है और बाहुबल ही उनका कुल होता है। कर्ण आगे बोलता है, मैं अपने गुरु के आदेश पर आपसे यह निवेदन करने आया हूं कि आप अपने लोगों को वर्षा करने का आदेश दें।
देवराज बोली तुम मुझे आदेश दे रहे हो, देवराज इंद्र को, स्मरण रहे बरसा मेरे अधीन है जिसे आज तक इन पृथ्वी वासियों को भेंट स्वरूप देता आया हूं परंतु मुझे अभी अनुभव होने लगा है कि निशुल्क में मिलने वाली इन सुविधाओं का यह पृथ्वी वासी सम्मान नहीं करते। इसी कारण मैंने यह निर्णय लिया है कि पृथ्वी वासियों को वर्षा तब तक प्राप्त नहीं होगी जब तक वह मुझे उचित सम्मान नहीं देंगे।
इसके बाद कौन बोलता है, सम्मान और आदर प्रेम पूर्वक अर्जित किए जाते हैं देवराज, बलपूर्वक तो केवल भय अर्जित किया जाता है। देवराज अभिमान भरे शब्दों में बोलता है, भय के कारण ही सही मुझे सम्मान चाहिए। यदि सम्मान मिलेगा तो इन पृथ्वी वासियों को वर्षा प्राप्त होगी। देवराज की इन बातों को सुनकर कर्ण का क्रोध और अधिक बढ़ने लगा और कर्ण गुस्सा में आकर बोलता है देवराज आप भूल रहे हैं कि पूजा उस वृक्ष की की जाती है जो फल दे, शीतल छाया दे, कांटों से भरे वृक्ष को काट दिया जाता है। इसके बाद कर्ण देवराज को सावधान करता हैं और कहता है, कि अपने मेघों को वर्षा करने का आदेश दो और इसे मेरा अंतिम निवेदन समझो या चेतावनी। तभी देवराज ओंकार भरे शब्दों में बोलते हैं यदि मैंने तुम्हारा निवेदन और स्वीकार किया तो वर्षा नहीं की तो, फिर कर्ण बोलता है यदि आपने मेरा निवेदन स्वीकार नहीं किया तो मेरे बाणो की वर्षा से आपका अभिमान नहीं बच पाएगा। देवराज घमंड भरे स्वर में बोलते हैं, अज्ञानी बालक एक इंद्रधनुष्य क्या बना लिया तो देवराज इंद्र को चुनौती दे बैठे और कुछ अस्त्र क्या प्राप्त कर लिए तो तुम्हें लगता है कि तुम वज्रधारी इंद्र का सामना करोगे। कर्ण बोलता है, आपको बज्र दान में मिला है देवराज और मैंने अपने अस्त्र परिश्रम और साधना करके अर्जित किए हैं। इसके बाद देवराज और कर्ण में युद्ध होता है अंत में देवराज इंद्र की पराजय होती है और वह कर्ण के सामने आत्मसमर्पण करता है। इसके बाद अपनी मेघो को वर्षा करने का आदेश देता है।
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दोस्तों इस कहानी से हमें प्रेरणा मिलती है कि घमंड टूटा जरूर है, वह फिर देवराज इंद्र का हो या हमारा। आप जीवन में कितने भी बड़े क्यों ना हो जाए लेकिन घमंड मत करना क्योंकि घमंड जब टूटता है तो बहुत दुख होता है। घमंड एक ऐसा हथियार है, जिसका इस्तेमाल इंसान स्वयं की बर्बादी के लिए करता है।
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- 5.महाभारत कहानी – एक ब्राह्मण और अर्जुन की कहानी

दोस्तों यह प्रेरक प्रसंग महाभारत काल का है। एक दिन श्री कृष्ण और अर्जुन नगर भ्रमण के लिए निकले थे। नगर भ्रमण के दौरान रास्ते में एक गरीब ब्राह्मण भिक्षा मांगते हुए दिखाई दिया। अर्जुन को उस ब्राह्मण पर दया आ गई और उन्होंने उस ब्राह्मण को अपने पास बुलाया तथा अपनी कमर पर लटकी सोने से भरी पोटली उसे दे दी। इतने सारे सोनी के सिक्के देखकर ब्राह्मण की खुशी का ठिकाना ना रहा है। उसने श्री कृष्ण और अर्जुन दोनों का धन्यवाद किया तथा वार्षिक दर के लिए चल पड़ा। वह रास्ते भर यही सोच रहा था कि अब उसकी जिंदगी बदल जाएगी वह एक अच्छा घर खरीदेगा और अपनी पत्नी और बच्चों की सभी मांगों को पूरा करेगा, बचे हुए धन से एक छोटा सा व्यापार शुरू करेगा। लेकिन उस बिचारे ब्राह्मण को नहीं पता था कि उसका दुर्भाग्य उसके साथ चल रहा था। घर के रास्ते की एक सुनसान जगह पर एक लुटेरा सोने के सिक्को से भरी पोटली छीन कर भाग गया। इसके बाद वह अपना सिर पकड़ कर रह गया और दुखी मन से घर पहुंचा।
ब्राह्मण ने अगले दिन फिर से भिक्षा मांगना शुरू कर दिया। कुछ दिनों बाद जब श्री कृष्ण और अर्जुन द्वारा नगर भ्रमण के लिए निकले तो उन्होंने उस ब्राह्मण को फिर से भिक्षा मांगते हुए देखा। यह देख कर अर्जुन को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इस ब्राह्मण को इतनी सारी स्वर्ण मुद्राएं दी इसके बाद भी यह भीख मांग रहा है। अर्जुन ने उस ब्राह्मण को अपने पास बुलाया और पूछा तुम बिछा क्यों मांग रहे हो तब ब्राह्मण ने पूरी बात बताई कि एक लुटेरे ने और सिक्कों की पोटली छीन ली। यह सुनकर अर्जुन को उस ब्राह्मण पर दया आ गई और अर्जुन ने अपने गले से हीरो की एक माला निकालकर उस ब्राह्मण को दे दी। ब्राह्मण फिर से दोनों का धन्यवाद किया और खुशी-खुशी घर के लिए निकल पड़ा।
ब्राह्मण घर पहुंच कर इस सोच में पड़ गया कि इस माला को कहां रखूं। उसके घर में एक पुराना मटका पड़ा हुआ था जिसका कोई उपयोग नहीं हो रहा था। उसने सोचा जिस पुराने मटके में किसी की नजर नहीं जाएगी इसलिए चोरी के डर से उसने वह हीरो की माला उस प्राणी मटकी में रख दी।
ब्राह्मण सुबह से भीख मांगते मांगते थक चुका था और अग्नि सुबह उससे भीख मांगने नहीं जाना था, इसलिए उसे रात बहुत गहरी और आराम की नींद आ गई। सुबह सुबह जब उसकी पत्नी नदी में पानी भरने जा रही थी तो उसने देखा रोज वाले घड़ी में एक छोटा सा छेद है इसलिए वह उस पुराने घड़े को लेकर नदी में पानी भरने चली जाती है जब वह घड़े को धोने के लिए उल्टा करती है तो वह हीरो की माला उस नदी में गिर जाती है। जब सुबह सुबह ब्राह्मण पुराने मटके में पानी भरा देखता है और उसके बारे में पूछता है तो वह अपनी दुर्भाग्य और किस्मत को कोस में लग जाता है।
इसके पश्चात वह दुखी मन से फिर भिक्षा मांगने नगर में जाता है। उस शाम फिर से श्री कृष्ण और अर्जुन नगर भ्रमण के लिए निकले थे। जब अर्जुन उस ब्राह्मण को फिर से भिक्षा मांगते हुए देखते हैं तो उसे अपने पास बुला कर कहते हैं तुम अभी भी भिक्षा मांग रहे हो। तभी ब्राह्मण अपनी सारी कहानी सुनाता है। कहानी सुनकर अर्जुन मन ही मन सोचता है कि इस ब्राह्मण की तो किस्मत ही खराब है, इसकी किस्मत में तो भीख मांगना ही लिखा है। इस सारी घटना के दौरान श्री कृष्ण अर्जुन की तरफ देख कर मुस्कुराते हैं और कहते हैं पार्थ इस बार मैं ब्राह्मण को दान देता हूं। श्री कृष्ण ने एक छोटी सी मुद्रा उस ब्राह्मण को दान में दे दी। यह देख कर उस ब्राह्मण को बड़ा आश्चर्य हुआ लेकिन उसमें कुछ भी नहीं बोला और धन्यवाद करके चला गया। उसके जाने के बाद अर्जुन ने श्री कृष्ण से कहा जब मेरी सोने की मुद्राओं और हीरे के हार से उसका कुछ नहीं हुआ तो भला आपकी छोटी सी मुद्रा से उसका क्या भला होगा। कृष्ण मुस्कुराए और बोले तुम उस ब्राह्मण का पीछा करो। वह ब्राह्मण रास्ते में सोचता हुआ जा रहा था कि इतने बड़े राजा होकर श्रीकृष्ण ने छोटा सा दान दिया इतने में तो मेरे परिवार के लिए एक दिन का खाना भी नहीं आएगा। वह ब्राह्मण नाश्ता हुआ जा ही रहा था कि रास्ते में उसने देखा एक मछुआरे की जाल में एक मछली तड़प रही है। इसके बाद उस ब्राह्मण ने सोचा कि एक सिक्के से मेरा तो भला नहीं होगा, इस बिचारी मछली का ही भला कर देता हूं। वह उस मछली को मोलभाव कर खरीद लेता है और अपने भिक्षा पात्र में पानी भरकर उस मछली को रख लेता है। वह ब्राह्मण मछली को वापस नदी में डालने जा ही रहा था कि इतने में उस मछली में मुझे हीरो की एक माला उगल दी। यह वही माला थी जिसे उसकी पत्नी ने नदी में गिरा दिया था एक मछली ने हीरो की माला को निगल लिया था। उसी हीरो की माला को देखकर वह ब्राह्मण खुशी के मारे जो जोर से चिल्लाने लगा, “मिल गया, मिल गया”, किस्मत से उसी समय वह लुटेरा जिसने ब्राह्मण से सोने के सिक्कों से भरी पोटली छीनी थी, वह गुजर रहा था। जब उसने ब्राह्मण को जोर-जोर से चिल्लाते हुए सुना तो उसे लगा कि ब्राह्मण ने उसे पहचान लिया है और अब वह ब्राह्मण राजा के दरबार में मिली शिकायत करेगा और मुझे चोरी का दंड दिया जाएगा। दंड के भय से वह लुटेरा ब्राह्मण के पैर पकड़ने लगा और उसने वह सारी स्वर्ण मुद्राएं वापस कर दी। ब्राह्मण ने खुशी-खुशी उस मछली को नदी में छोड़ दिया और अपने घर चला गया। यह सब देख कर अर्जुन श्रीकृष्ण से बोले, केशव जो काम स्वर्ण मुद्राओं की थैली और हीरो का हार न कर पाया, वह काम आपकी छोटी सी मुद्रा ने कैसे कर दिया।
श्रीकृष्ण मुस्कुराए और बोले पार्थ यह उसकी सोच का अंतर है जब तुमने उस ब्राह्मण को सोने की मुद्राएं और हीरे का हार दिया तो उसने खुद की सुख के विषय में सोचा लेकिन जब मैंने उसे सिर्फ एक मुद्रादि तो उसने दूसरे की दुख को खत्म करने के बारे में सोचा। श्री कृष्ण ने आगे कहा अर्जुन सत्य तो यह है कि हम दूसरों के दुख के विषय में सोचते हैं और दूसरों का भला कर रही होते हैं तो हम ईश्वर का कार्य कर रहे होते हैं और तब ईश्वर हमारे साथ होते हैं।