
यक्ष और युधिष्ठिर के बीच जो संवाद हुआ है उसे जानने के बाद आप जरूर हैरान रह जाएंगे। आप भी अपने जीवन में कुछ प्रश्नों के उत्तर ढूंढ ही रहे होंगे।
यदि ऐसा है तो इस वीडियो को अंत तक देंखे और हमारे चैनल पर नये हों तो इसे सब्सक्राइब अवश्य करें। इस वीडियो में जिन प्रश्नों के बारे में चर्चा की गई है वे अध्यात्म, दर्शन और धर्म से जुड़े प्रश्न ही नहीं है, यह आपकी जिंदगी से जुड़े प्रश्न भी है।
पांडव अपने तेरह-वर्षीय वनवास के दौरान जब वन में विचरण कर रहे थे। तब उन्हें रास्ते में प्यास लगी तो उन्होंने प्यास बुझाने के लिए पानी की तलाश की। पानी का प्रबंध करने का जिम्मा सबसे पहले नकुल को सौंपा गया। नकुल को पास में एक जलाशय दिखा जिससे पानी लेने वहां पहुंचा। तो जलाशय के स्वामी अदृश्य यक्ष ने आकाशवाणी के द्वारा उन्हें रोकते हुए पहले कुछ प्रश्नों का उत्तर देने की शर्त रखी। नकुल उस शर्त और यक्ष को अनदेखा कर जलाशय से पानी लेने लगे। तब यक्ष ने नकुल को निर्जीव कर दिया। नकुल के न लौटने पर क्रमशः सहदेव, अर्जुन और फिर भीम ने पानी लाने की जिम्मेदारी उठाई। वे उसी जलाशय पर पहुंचे और यक्ष की शर्तों की अवज्ञा करने के कारण निर्जीव हो गए।
अंत में चिंतातुर युधिष्ठिर स्वयं उस जलाशय पर पहुंचे। अदृश्य यक्ष ने प्रकट होकर उन्हें आगाह किया और अपने प्रश्नों के उत्तर देने के लिए कहा। युधिष्ठिर ने धैर्य दिखाया और यक्ष की शर्त स्वीकार कर ली
तब यक्ष ने प्रश्न किया – में कौन हूँ?
युधिष्ठिर ने जबाब दिया- तुम न यह शरीर हो, न इन्द्रियां, न मन, न बुद्धि। तुम शुद्ध चेतना हो, वह चेतना जो सर्वसाक्षी है।
अर्थात व्यक्ति को खुद से यह सवाल पूछना चाहिए कि मैं कौन हूं। क्या शरीर हूं जो मृत्यु के समय नष्ट हो जाएगा? क्या आंख, नाक, कान आदि पांचों इंद्रियां हूं जो शरीर के साथ ही नष्ट हो जाएंगे? तो क्या में मन या बुद्धि हूं। अर्थात मैं जो सोचता हूं या सोच रहा हूं- क्या वह हूं? जब गहरी सुषुप्ति आती है तब यह भी बंद होने जैसा हो जाता है। तब मैं क्या हूं? व्यक्ति खुद आंख बंद करके इस पर बोध करे तो उसे समझ में आएगा कि मैं शुद्ध आत्मा, चेतना और सर्वसाक्षी हूं। ऐसा एक बार के आंख बंद करने से नहीं होगा।
यक्ष ने दूसरा प्रश्न किया: जीवन का उद्देश्य क्या है?
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया: जीवन का उद्देश्य उसी चेतना को जानना है जो जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त है। उसे जानना ही मोक्ष है।
अर्थात बहुत से लोगों का उद्देश्य धन कमाना हो सकता है। धन से बाहर की समृद्धि प्राप्त हो सकती है, लेकिन ध्यान से भीतर की समृद्धि प्राप्त होती है। मरने के बाद बाहर की समृद्धि यहीं रखी रह जाएगी लेकिन भीतर की समृद्धि आपके साथ जाएगी। महर्षि पतंजलि ने मोक्ष तक पहुंचने के लिए सात सीढ़ियां बता रखी है:- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान। ध्यान के बाद समाधी या मोक्ष स्वत: ही प्राप्त होता है।
यक्ष ने तीसरा प्रश्न किया : जन्म का कारण क्या है?
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया: अतृप्त वासनाएं, कामनाएं और कर्मफल ये ही जन्म का कारण हैं।
अर्थात जन्म लेना और मरना एक आदत है। इस आदत से छुटकारा पाने का उपाय उपनिषद, योग और गीता में पाया जाता है। वासनाएं और कामनाएं अनंत होती है। जब तक यह रहेगी तब तक कर्मबंधन होता रहेगा और उसका फल भी मिलता रहेगा। इस चक्र को तोड़ने वाला ही जितेंद्रिय कहलाता है।
यक्ष ने चौथा प्रश्न किया: जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त कौन है?
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया: जिसने स्वयं को, उस आत्मा को जान लिया वह जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त है।
अर्थात मैं कौन हूं और मेरा असली स्वरूप क्या है। इस सत्य को जानने वाला ही जन्म और मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है, यह जानने के लिए अष्टांग योग का पालन करना चाहिए।
यक्ष ने पांचवा प्रश्न किया:- वासना और जन्म का सम्बन्ध क्या है?
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया:- जैसी वासनाएं वैसा जन्म। यदि वासनाएं पशु जैसी तो पशु योनि में जन्म। यदि वासनाएं मनुष्य जैसी तो मनुष्य योनि में जन्म।
अर्थात वासना का अर्थ व्यापक है। यह चित्त की एक दशा है। हम जैसा सोचते हैं वैसे बन जाते हैं। उसी तरह हम जिस तरह की चेतना के स्तर को निर्मित करते हैं अगले जन्म में उसी तरह की चेतना के स्तर को प्राप्त हो जाते है। उदाहरणार्थ एक कुत्ते के होश का स्तर हमारे होश के स्तर से नीचे है लेकिन यदि हम एक बोतल शराब पीले तो हमारे होश का स्तर उस कुत्ते के समान ही हो जाएगा। संभोग के लिए आतुर व्यक्ति के होश का स्तर भी वैसा ही होता है।
यक्ष ने छटवां प्रश्न किया : संसार में दुःख क्यों है?
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया: संसार के दुःख का कारण लालच, स्वार्थ और भय हैं।
अर्थात लालच का कोई अंत नहीं, स्वार्थी का कोई मित्र नहीं और भयभीत व्यक्ति का कोई जीवन नहीं। भय से ही सभी तरह के मानसिक विकारों का जन्म होता है। कई दफे लालच मौत का कारण भी बन जाता है। लालच को बुरी बला कहा गया है। लालची व्यक्ति का लालच बढ़ता ही जाता है और वह अपने लालच के कारण ही दुखी रहता है। स्वार्थी व्यक्ति तो सर्वत्र पाए जाते हैं। स्वार्थी आदमी स्वयं का उल्लू सीधा करने के लिए किसी की भी जान को भी दांव पर लगा सकते हैं। स्वार्थी के मन में ईर्ष्या प्रधान गुण होता है।
यक्ष ने सातवां प्रश्न किया: तो फिर ईश्वर ने दुःख की रचना क्यों की?
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया: ईश्वर ने संसार की रचना की और मनुष्य ने अपने विचार और कर्मों से दुःख और सुख की रचना की।
अर्थात मनुष्य जैसा सोचता है वैसा ही बन जाता है। नकारात्मकता स्वत: ही आती है लेकिन सकारात्मक विचारों को लाना पड़ता है। सकारात्मकता लाने की मेहनत कोई नहीं करता है इसीलिए वह बुरे विचार सोचकर बुरे कर्मों में फंसता रहता है। बुरे कर्मों का परिणाम भी बुरा ही होता है।
यक्ष ने आठवाँ प्रश्न किया: क्या ईश्वर है? यदि है तो कौन है वह? क्या वह स्त्री है या पुरुष?
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया: कारण के बिना कार्य नहीं। यह संसार उस कारण के अस्तित्व का प्रमाण है। तुम हो इसलिए वह भी है उस महान कारण को ही आध्यात्म में ईश्वर कहा गया है। वह न स्त्री है न पुरुष।
अर्थात यह जगत या संसार ही इस बात का सबूत है कि ईश्वर है। उसके होने के बगैर यह हो नहीं सकता। जैसे शरीर के होने का सबूत ही ये है कि आत्मा है या तुम हो। तुम्हें ही तो आत्मा कहा गया है। ईश्वर न तो पुरुष है और न स्त्री उसी तरह जैसे कि आत्मा न तो स्त्री है और न पुरुष। स्त्री और पुरुष तो शरीर की भावना है। यदि आत्मा स्त्री जैसे शरीर में होगी तो वैसी भावना करेगी। जिस तरह जल, हवा और आत्मा का कोई आकार प्रकार नहीं होता लेकिन उन्हें जिस भी पात्र में समाहित किया जाता है वह वैसे ही हो जाते हैं।
यक्ष ने नोवां प्रश्न किया: ईश्वर का स्वरूप क्या है?
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया: वह सत्-चित्-आनन्द है, वह निराकार ही सभी रूपों में अपने आप को स्वयं को व्यक्त करता है।
यक्ष ने दसवाँ प्रश्न किया: भाग्य क्या है?
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया: हर क्रिया, हर कार्य का एक परिणाम है। परिणाम अच्छा भी हो सकता है, बुरा भी हो सकता है। यह परिणाम ही भाग्य है। आज का प्रयत्न कल का भाग्य है।
अर्थात बहुत से लोग भाग्यवादी होते हैं उनके लिए यह अच्छा जवाब है। भाग्य के भरोसे रहने वालों के मन में नकारात्मकता का जन्म भी होता है। बहुत से लोग जिंदगी भर इसी का दुख मनाते हैं कि हमारे भाग्य में नहीं था इसलिए यह हमें नहीं मिला। ऐसे लोग कभी सुखी नहीं रहते हैं। भाग्य के होने के बहुत सबूत इसलिए दिए जाते हैं क्योंकि वे लोग कर्म के सिद्धांत को अच्छे से समझते नहीं है।
यक्ष ने ग्यारहवाँ प्रश्न किया: सुख और शान्ति का रहस्य क्या है?
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया: सत्य, सदाचार, प्रेम और क्षमा सुख का कारण हैं। असत्य, अनाचार, घृणा और क्रोध का त्याग शान्ति का मार्ग है।
अर्थात असत्य बोलकर व्यक्ति दुख, चिंता या तनाव में रहने लगाता है। बुरा व्यवहार करके भी व्यक्ति सुखी नहीं रह सकता। परिवार या किसी व्यक्ति के प्रति प्रेम नहीं है तो भी सुखी नहीं रह सकता। यदि किसी ने उसके साथ कुछ किया है तो क्षमा न करके उससे बदला लेने की भावना रखने पर भी वह सुखी नहीं रह सकता।
यक्ष ने 12 वां प्रश्न किया: चित्त पर नियंत्रण कैसे संभव है?
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया: इच्छाएं, कामनाएं चित्त में उद्वेग उत्पन्न करती हैं। इच्छाओं पर विजय चित्त पर विजय है।
अर्थात इच्छाएं अनंत होती है। जिस तरह भोजन करने के बाद पुन: भूख लगती है उसी तरह एक इच्छा के पूरी होने के बाद दूसरी जाग्रत हो जाती है। वे इच्छाएं दुखदायी होती है जो उद्वेग उत्पन्न करती है। न भोग, न दमन, वरण जागरण। इच्छाओं के प्रति सजग रहकर ही उन पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
ऐसे ही यक्ष ने अनेकों प्रश्न किये
युधिष्ठिर ने सारे प्रश्नों के उत्तर सही दिए अंत में यक्ष बोला, ‘युधिष्ठिर में तुम्हारे एक भाई को जीवित करूंगा। तब युधिष्ठिर ने अपने छोटे भाई नकुल को जिंदा करने के लिए कहा। लेकिन यक्ष हैरान था उसने कहा तुमने भीम और अर्जुन जैसे वीरों को जिंदा करने के बारे में क्यों नहीं सोचा।’
युधिष्ठिर बोले, मनुष्य की रक्षा धर्म से होती है मेरे पिता की दो पत्नियां थीं कुंती का एक पुत्र मैं तो बचा हूं मैं चाहता हूं कि माता माद्री का भी एक पुत्र जीवित रहे यक्ष उत्तर सुनकर काफी खुश हुए उन्होंने सभी भाईयों को जिंदा कर दिया और महाभारत की जीत का वरदान देकर अपने धाम लौट गए।